वांछित मन्त्र चुनें

उद्यत्सहः॒ सह॑स॒ आज॑निष्ट॒ देदि॑ष्ट॒ इन्द्र॑ इन्द्रि॒याणि॒ विश्वा॑। प्राचो॑दयत्सु॒दुघा॑ व॒व्रे अ॒न्तर्वि ज्योति॑षा संववृ॒त्वत्तमो॑ऽवः ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud yat sahaḥ sahasa ājaniṣṭa dediṣṭa indra indriyāṇi viśvā | prācodayat sudughā vavre antar vi jyotiṣā saṁvavṛtvat tamo vaḥ ||

पद पाठ

उत्। यत्। सहः॑। सह॑सः। आ। अज॑निष्ट। देदि॑ष्टे। इन्द्रः॑। इ॒न्द्रि॒याणि॑। विश्वा॑। प्र। अ॒चो॒द॒य॒त्। सु॒ऽदुघाः॑। व॒व्रे॒। अ॒न्तः। वि। ज्योति॑षा। सं॒ऽव॒वृ॒त्वत्। तमः॑। अ॒व॒रित्य॑वः ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:31» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:29» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (इन्द्रः) योगरूप ऐश्वर्य से युक्त सूर्य्य (सहसः) बल से जिस (सहः) बल को (उत्, आ, अजनिष्ट) उत्पन्न करता (विश्वा) सम्पूर्ण (इन्द्रियाणि) श्रोत्र आदि इन्द्रियों वा धनों का (देदिष्टे) उपदेश देता और (प्र, अचोदयत्) प्रेरणा करता और (सुदुघाः) उत्तम प्रकार कामनाओं को पूर्ण करनेवाली क्रियाओं का (वव्रे) स्वीकार करता है, वैसे (अन्तः) मध्य में (ज्योतिषा) प्रकाश से (संववृत्वत्) घेरनेवाली (तमः) रात्रि की (वि) विशेष करके (अवः) रक्षा करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो राजा बल से बल और धन से धन को उत्पन्न करके, न्याय के प्रकाश से अन्यायरूप अन्धकार का निवारण कर, पूर्ण मनोरथों से युक्त प्रजाओं को करके विद्या आदि उत्तम गुणों के ग्रहण के लिये प्रेरणा करता है, वही अखण्ड ऐश्वर्य्यवाला सदा होता है ॥३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथेन्द्रः सूर्य्यः सहसो यत्सह उदाजनिष्ट विश्वा इन्द्रियाणि देदिष्टे प्राचोदयत् सुदुघा वव्रे तथाऽन्तर्ज्योतिषा संववृत्वत्तमो व्यवः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (यत्) (सहः) बलम् (सहसः) बलात् (आ) (अजनिष्ट) जनयति (देदिष्टे) दिशत्युपदिशति (इन्द्रः) योगैश्वर्य्ययुक्तः (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादीनि धनानि वा (विश्वा) सर्वाणि (प्र, अचोदयत्) प्रेरयति (सुदुघाः) सुष्ठा कामप्रपूरिकाः क्रियाः (वव्रे) वृणाति (अन्तः) मध्ये (वि) (ज्योतिषा) प्रकाशेन (संववृत्वत्) संवरणशीलम् (तमः) रात्री (अवः) रक्ष ॥३॥
भावार्थभाषाः - यो राजा बलाद् बलं धनाद्धनं जनयित्वा न्यायप्रकाशेनाऽन्यायाऽन्धकारं निवार्य्य पूर्णकामाः प्रजाः कृत्वा विद्यादिशुभगुणग्रहणाय प्रेरयति स एवाऽखण्डैश्वर्य्यः सदा भवति ॥३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा बलाने बल व धनाने धन उत्पन्न करून न्यायाने अन्यायरूपी अंधकाराचे निवारण करून प्रजेचे मनोरथ पूर्ण करून विद्या इत्यादी गुणांचे ग्रहण करण्याची प्रेरणा देतो तोच अमाप ऐश्वर्यवान होतो. ॥ ३ ॥